सपने भले ही न हो अब पर,
उम्मीदें बहुत सारी हैं
उम्र के इस चौथे दशक में भी,
रिश्तों को सवारने की कोशिश जारी है…
सब हैं गुड़ से मीठे,
फिर भी जिंदगी खारी है
अपनों की आँखों में,
अपनेपन की तलाश ज़ारी है…
मन मुटाव जब नहीं कुछ भी,
फिर क्यों कटाक्ष ज़ारी है
शतरंज का खेल नहीं ये,
की अब मेरी और अब तेरी बारी है…
गुस्सैल, जिद्दी, नासमझ,
मेरा नामकरण तो ज़ारी है…
पर मुझे ऐसा बनाने में,
जग़ की भी पूरी भागीदारी है…
शब्दों की समझ नहीं मुझ में,
क्योंकि जिंदगी पाठ पढ़ा रही है
वो किताबें कभी पढ़ी नहीं,
जिससे चलती दुनियादारी है…
शिकायत करनी छोड़ दी अब,
क्योंकि मुझसे शिकायतें बहुत सारी हैं….
शिकवों को स्वीकृति में बदलने की
कोशिश जारी है…..
Superb poem
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